श्री माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड
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माता वैष्णो देवी जी

पौराणिक गाथा के अनुसार जब माता असुरों का संहार करने में व्यस्त थीं तो माता के तीन मूल रूप : माता महाकाली, माता महालक्ष्मी और माता महा सरस्वती एक दिन इकट्ठे हुए और उन्होंने अपनी दिव्य आध्यात्मिक शक्तियों यानि अपने तेज को एकत्रित करके परस्पर मिला दिया, तभी उस स्थान से जहां तीनों के तेज मिल कर एक रूप हुए आश्चर्य चकित करने वाली तीव्र ज्योति ने सरूप धारण कर लिया और उन तीनों के तेज के मिलने से एक अति सुंदर कन्या/युवति प्रकट हुई। प्रकट होते ही उस कन्या/युवति ने उन से पूछा, ‘‘ मुझे क्यों बनाया गया है ?’’ देवियों ने उसे समझाया कि उन्होंने उसे धरती पर रह कर सद्गुणों एवं सदाचार की स्थापना, प्रचार-प्रसार एवं रक्षा हेतु अपना जीवन बिताने के लिए बनाया है।

देवियों ने कहा , ‘‘ अब तुम भारत के दक्षिण में रह रहे हमारे परम भक्त रत्नाकर और उनकी पत्नी के घर जन्म लेकर धरती पर रह कर सत्य एवं धर्म की स्थापना करो और स्वयं भी आध्यात्मिक साधना में तल्लीन हो कर चेतना के उच्यतम स्तर को प्राप्त करो। एक बार जब तुमने चेतना के उच्यतम स्तर को प्राप्त कर लिया तो विष्णु जी में मिलकर उनमें लीन होकर एक हो जाओगी।’’ ऐसा कह कर तीनों ने कन्या/युवति को वर प्रदान किए। कुछ समय उपरांत रत्नाकर और उसकी पत्नी के घर एक बहुत सुंदर कन्या ने जन्म लिया। पति-पत्नी ने कन्या का नाम वैष्णवी रखा। कन्या में अपने शैशवकाल से ही ज्ञान अर्जित करने की जिज्ञासा रही। ज्ञान प्राप्त करने की उसकी भूख ऐसी थी कि किसी भी प्रकार की शिक्षा-दीक्षा से उसे संतुष्टि न होती। अंततः वैष्णवी ने ज्ञान प्राप्ति के लिए अपने मन में चिंतन लीन होना आरम्भ कर दिया और शीघ्र ही ध्यान लगाने की कला सीख ली और समझ गई कि चिंतन मनन और पश्चाताप स्वरूप तपस्या से ही वह अपने महान लक्ष्य तक पंहुच सकेगी। इस तरह वैष्णवी ने घरेलु सुखों का त्याग कर दिया और तपस्या के लिए घने जंगलों में चली गई। उन्हीं दिनों भगवान राम अपने 14 वर्ष के वनवास काल में वैष्णवी से आ कर मिले, तो वैष्णवी ने उन्हें एकदम पहचान लिया कि वह साधारण व्यक्ति नहीं बल्कि भगवान विष्णु के अवतार हैं। वैष्णवी ने पूरी कृतज्ञता के साथ उनसे उन्हें अपने आप में मिला लेने का निवेदन किया ताकि वह परम सर्जक में मिलकर एकम-एक हो जाए।
 

जबकि राम ने इसे उचित समय न जान कर वैष्णवी को रोक दिया और उत्साहित करते हुए कहा कि वह उसे वनवास खत्म होने पर दुबारा मिलेंगे और उस समय यदि उसने उन्हें पहचान लिया तो वह उसकी इच्छा पूर्ण कर देंगे। अपने वचनों को सत्य करते हुए युद्ध जीतने के बाद राम उसे दुबारा मिले परंतु इस बार राम एक बूढ़े आदमी के भेष में मिले। दुर्भाग्य से इस बार वैष्णवी उन्हें पहचान न पाई और खीज कर उन्हें भला बुरा कहने लगी और दुखी हो गई। इस पर भगवान राम ने उन्हें सांत्वना दी कि सृजक से मिलकर उनमें एक हो जाने का अभी उसके लिए उचित समय नहीं आया है और अंततः वह समय कलियुग में आएगा जब वह (राम) कल्कि का अवतार धारण करेंगे। भगवान राम ने उसे तपस्या करने का निर्देश दिया और त्रिकुटा पर्वत श्रेणियों की तलहटियों में आश्रम स्थापित करने और अपनी आध्यात्मिक शक्ति का स्तर उन्नत करने और मानव मात्र को आशीर्वाद देने और निर्धनों और वंचित लोगों के दुखों को दूर करने की प्रेरणा दी। और कहा कि तभी विष्णाु उसे अपने में समाहित करेंगे। उसी समय वैष्णवी उत्तर भारत की ओर चल पड़ी और अनेक कठिनाइयों को झेलती हुई त्रिकुटा पर्वत की तलहटी में आ पंहुची। वहां पहुंच कर वैष्णवी ने आश्रम स्थपित किया और चिंतन मनन करते हुए तपस्या में लीन रहने लगी।

 

जैसा कि राम जी ने भविष्यवाणी की थी , उनकी महिमा दूर दूर तक फैल गई। और झुण्ड के झुण्ड लोग उनके पास आशीर्वाद लेने के लिए उनके आश्रम में आने लगे। समय बीतने पर महायोगी गुरु गोरखनाथ जी जिन्होंने बीते समय में भगवान राम और वैष्णवी के बीच घटित संवाद को घटते हुए देखा था, वह यह जानने के लिए उत्सुक हो उठे कि क्या वैष्णवी आध्यात्मिक उच्चता को प्राप्त करने में सफल हुई है या नहीं। यह सच्चाई जानने के लिए उन्होंने अपने विशेष कुशल शिष्य भैरव नाथ को भेजा। आश्रम को ढूंढ कर भैरव नाथ ने छिप कर वैष्णवी की निगरानी करना आरम्भ कर दिया और जान गया कि यद्धपि वह साधवी है पर हमेशा अपने साथ धनुष वाण रखती है, और हमेशा लंगूरों एवं भंयकर दिखने वाले शेर से घिरी रहती है। भैरव नाथ वैष्णवी की आसाधारण सुंदरता पर आसक्त हो गया। वह अपनी सारी सद्बुद्धि को भूलकर , वैष्णवी पर विवाह के लिए दबाव डालने लगा। इसी समय वैष्णवी के परम भक्त श्रीधर ने सामूहिक भण्डारे का आयोजन किया जिसमें समूचे गांव और महायोगी गुरु गोरखनाथ जी को उनके सभी अनुयायियों को भैरव नाथ सहित निमंत्रण दिया गया। सामूहिक भोज के दौरान भैरव नाथ ने वैष्णवी का अपहरण करना चाहा परंतु वैष्णवी ने भरसक यत्न करके उसे झिंझोड़ कर धकेल दिया। अपने यत्न में असफल रहने पर वैष्णवी ने पर्वतों में पलायन कर जाने का निर्णय कर लिया ताकि बिना किसी विघ्न के अपनी तपस्या कर सके। फिर भी भैरो नाथ ने उसने लक्ष्य स्थान तक उनका पीछा किया।

आजकल के बाणगंगा, चरणपादुका और अधकुआरी स्थानों पर पड़ाव के बाद अंततः देवी पवित्र गुफा मंदिर जा पंहुची। जब भैरों नाथ ने देवी का;े संघर्ष से बचने के उनके प्रयासों के बावजूद पीछा करना न छोड़ा तो देवी भी उसका वध करने के लिए विवश हो गई। जब माता गुफा के मुहाने के बाहर थीं तो उन्होंने भैरों नाथ का सिर धड़ से अलग कर दिया और अंततः भैरों नाथ मृत्यु को प्राप्त हुआ। भैरों नाथ का सिर दूर की पहाड़ी चोटी पर धड़ाम से गिरा। अपनी मृत्यु के समय भैरों नाथ ने अपने उद्धेश्य की व्यर्थता को पहचान लिया और देवी से क्षमा प्रार्थना करने लगा। सर्वशक्तिमान माता को भैरों नाथ पर दया आ गई और उन्होंने उसे वरदान दिया कि देवी के प्रत्येक श्रद्धालु की देवी के दर्शनों के बाद भैरों नाथ के दर्शन करने पर ही यात्रा पूर्ण होगी। इसी बीच वैष्णवी ने अपने भौतिक शरीर को त्याग देने का निर्णय किया और तीन पिण्डियों वाली एक शिला के रूप में परिवर्तित हो गई और सदा के लिए तपस्या में तल्लीन हो गईं।

इस तरह तीन सिरों या तीन पिण्डियों वाली साढे पांच फुट की लम्बी शिला स्वरूप वैष्णवी के दर्शन श्रद्धालुओं की यात्रा का अंतिम पड़ाव होता है। इस तरह पवित्र गुफा में ये तीन पिण्डियां पवित्रतम स्थान है। यह पवित्र गुफा माता वैष्णो देवी जी के मंदिर के रूप में विश्व प्रसिद्ध है और सभी लोगों में सम्मान प्राप्त कर रही है।

 

 

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