वृत्रासुर
का वध होने के बाद सभी साधु संतों को उसकी हत्या संबंधी अपने दुष्ट
कर्मों पर अपराध बोध हुआ और ब्राह्मण वध के अपराध बोध और आत्म ग्लानि
से ग्रस्त हुए वे मानसिक शांति और तपस्या के लिए जंगलों में चले गए। जब
वृत्रासुर के पिता त्वष्टा ने सुना कि इंद्र ने उसके पुत्र का धूर्तता
पूर्ण षड़यंत्र रच कर वध किया है तो उसने इंद्र को श्राप दे दिया कि उसे
भी इसी प्रकार की मृत्यु जैसी घातक स्थिति का सामना करना पड़ेगा। इंद्र
द्वारा की गई ब्राह्मण हत्या की फुसफुसाहट सभी जगह फैल गई और इंद्र की
सारी गरिमा मुरझाने लगी। प्रत्येक दिन के बीतने के साथ-साथ इंद्र
ब्राह्मण वध के पाप से ग्रस्त होता गया। एक दिन उसने अपना महल छोड़ दिया
और मानसरोवर झील पर आ गया। वहां आ कर कमल के तने में इस तरह प्रवेश कर
लिया कि ढंूढने पर भी किसी को दिखे नहीं। इंद्र अपने पाप पूर्ण कर्म की
छाया से इस प्रकार ग्रस्त रहा कि अपनी निराशा में वह अपने आवश्यक
कर्तव्यों एवं कार्यों को ही भूल गया। इंद्र के अचानक अदृश्य हो जाने
से देवताओं में हाहाकार मच गया। क्योंकि बादलों ने बरसना बंद कर दिया,
पवन ने बहना बंद कर दिया और भूमि अनउर्वरा हो गई। इंद्र के कार्यों के
लिए देवताओं ने किसी अन्य को आसीन करने का विचार किया ताकि जब तक इंद्र
को ढंूढ नहीं लिया जाता वह स्वर्ग के काम-काज, दिव्य व्यवस्था को
समुचित ढंग से संभाल ले। सभी देवताओं ने ऋषि नहुष को इंद्र के सिंहासन
पर बिठा देने का निर्णय लिया। यद्धपि नहुष संत स्वभाव का व्यक्ति था पर
ज्यों ही उसने इंद्र का कार्यभार संभाला उसका जीवन के प्रति दृष्टिकोण
पूर्णतया बदल गया। वह भोग विलास का आनंद लेने लगा। वह रास विलास में
डूबता चला गया। एक दिन नहुष ने मांग कर दी कि इंद्र की पत्नी इंद्राणी
को उसे प्रसन्न करने के लिए बुलाया जाए। इंद्राणी देवताओं के गुरु
बृहस्पति के पास सहायता के लिए गई। बृहस्पति ने उसे सलाह दी कि वह नहुष
से यह कह कर समय मांग ले कि वह नहुष की सेवा के लिए तैयार है परंतु यह
ज्ञात हो जाने के बाद ही कि क्या उसका पति जीवित है। बृहस्पति ने उसे
भगवान विष्णु से निवेदन करने की सलाह दी। भगवान विष्णु ने प्रसन्न हो
कर इंद्राणी को देवी की पूजा का परामर्श दिया और कहा कि अश्वमेध यज्ञ
करे और देवी से प्रार्थना करे कि वह इंद्र के ब्राह्मण वध के पाप को
क्षमा कर दे और इंद्र को कर्तव्य निर्वाह की शक्तियां पुनः प्रदान करे
ताकि वह यथाशीघ्र नहुष के युग का अंत करे।
इंद्राणी ने पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ देवी की स्तुति आरम्भ कर
दी। देवी प्रसन्न हुई और उसे वरदान देने के लिए उसके समक्ष प्रकट हुई।
इंद्राणी ने नहुष से बचने के अतिरिक्त अपने पति से पुनः मिलन का
निवेदन किया और उसके पति इंद्र की सभी शक्तियों को पुनः स्थापन करने
का भी निवेदन किया। देवी ने इंद्राणी को मनचाहे वरदान दे दिए। इंद्र
के मिल जाने पर , इंद्राणी ने उसे नहुष की बदनीयत मांगों के बारे में
बता दिया। नहुष की अस्वीकार करने योग्य मांगों पर अंकुश लगाने की
योजना बना कर इंद्राणी नहुष के पास गई। और उसे कहा कि वह उसे प्रसन्न
करने के लिए तैयार है यदि वह इंद्र को ढंूढ ले और अलग ही तरह के अनूठे
वाहन पर सवार होकर आए, महान ऋषिओं द्वारा उसका रथ खींचा जाए। इस समय
तक देवी की माया ने नहुष को ग्रस लिया था , नहुष माया के प्रभाव में
आ चुका था। उसने संतों को रथ खींचने का आदेश दिया। वे बड़े हंसे परंतु
रथ खींचने के लिए मान गए। ऋषिओं द्वारा खींचा जा रहा रथ बृहस्पति के
आश्रम की ओर चल पड़ा। इंद्राणी को प्राप्त कर लेने के विचार से नहुष
इतना रोमांचित हो उठा कि वह ऋषिओं को तीव्रता से चलने के लिए कहने लगा।
वह बार बार सर्प सर्प कहने लगा। संस्कृत में सर्प का अर्थ है शीघ्र
चलना, परंतु इसका अर्थ सांप भी है। अंततः जब ऋषि अपना गुस्सा न संभाल
सके तो उन्होंने नहुष को एक हजार वर्ष के लिए सांप बन जाने का श्राप
दे दिया। और कहा कि जब वह पाण्डव युधिष्ठिर से मिलेगा तो वह उसे
श्राप से मुक्त करेगा। इसके बाद बृहस्पति और अन्य देवता मानसरोवर झील
पर गए और इंद्र को अपने छिपाव स्थल से बाहर आने और पुनः देवलोक के
सिंहासन को संभालने का निवेदन करने लगे।
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