देव
और असुर आपस में लगातार लड़ रहे थे। युद्ध के खत्म होने के आसार नहीं
थे। ऐसी स्थिति आ गई जब देव सशक्त हो गए, जिनसे चुनौती पाए असुर भाग खड़े
हुए और असुरों के गुरु शुक्राचार्य की शरण ढूंढने लगे। शुक्राचार्य ने
देवों को पराजित करने के लिए अध्यात्मिक शक्तियां प्राप्त करने के लिए
तपश्चर्या का निर्णय लिया। इसी बीच गुरु शुक्राचार्य ने असुरों को देवों
के साथ युद्ध से परे रहने और विनम्र बने रहने के लिए कहा। स्वयं
शुक्राचार्य अपनी ऐच्छिक तपश्चर्या की सफलता हेतु आशीर्वाद लेने कैलाश
पर्वत पर भगवान शंकर के पास चले गए। शुक्राचार्य की तपश्चर्या के पीछे
छिपे उद्धेश्य को जानकर भगवान शंकर ने अत्याधिक कठिन व्रत का पालन करने
का सुझाव दिया जिससे कि शुक्रचार्य इच्छित आध्यात्मिक शक्ति को प्राप्त
करने की राह पर सफल हो सके।
इसी बीच देवों को असुरों की तपश्चर्या का पता चल गया और उन्होंने
शुक्राचार्य के वापिस आने के पूर्व ही असुरों को नष्ट कर देने का
निर्णय कर लिया परंतु देवों को उनके ऐच्छिक कार्यों से शुक्राचार्य
की माता ने हतोत्साहित करते हुए उन पर निद्रा का जादू डाल कर उन्हें
अवचेतन की देवी के हवाले करके सुला दिया। केवल इन्द्र ही विष्णु की
सहायता से ऐसी निद्रा से बच निकलने में सफल रहे। चूंकि विष्णु ने ऋषि
भृगु की पत्नी और शुक्राचार्य की मां का सिर काट दिया था। जब ऋषि भृगु
ने इस घटना के बारे में सुना तो वह कुपित हो गए और विष्णु को बार-बार
धरती पर जन्म लेने का श्राप दे दिया था। इन्द्र एकदम ऋषि भृगु की
आध्यात्मिक शक्तियों को देखकर आक्रांत हो गया और देवों की सुरक्षा के
प्रति भयभीत होकर उसने अपनी पुत्री जयंति को शुक्राचार्य की सेवा में
भेजा। जयंति ने बड़ी श्रद्धा, समर्पण और सहनशीलता से शुक्राचार्य की
सेवा की। एक दिन शुक्राचार्य उस पर प्रसन्न हो गए। शुक्राचार्य ने दस
वर्ष के लिए जयंति को पत्नी के रूप में रखते हुए एक ऐसा भ्रम पैदा कर
लिया कि कोई उन्हें साथ रहते हुए देख न सके। जिसके फलस्वरूप असुर भी
उन्हें इस दस वर्षों के समय तक ढूंढ न सके।
इसी बीच इन्द्र के निवेदन पर बृहस्पति ने शुक्राचार्य का रूप
धारण किया और असुरों के साथ रहने लगा, दस वर्षो के पश्चात जब वास्तविक
शुक्राचार्य लौटे तो असुर उन्हें पहचान न सके और उन्हें कोई धोखेबाज, बहुरूपिया
समझ कर भगा दिया। शुक्राचार्य ने असुरों को श्राप दिया कि वे देवों के द्वारा
पराजित हो जाएं। तब अपनी विजय के प्रति आश्वस्त होकर देवों ने असुरों के विरूद्ध
युद्ध छेड़ दिया। अपनी गलती का अहसास होने पर असुरों ने शुक्राचार्य से क्षमा याचन
की। वे शुक्राचार्य को प्रसन्न करने में सफल हो गए। शुक्राचार्य उनकी सहायता करने
के लिए तैयार हो गए परंतु यह भी जोड़ दिया कि उसने संसार का महान सत्य जान लिया है
कि जो होना होता है वह होकर ही रहेगा। असुरों और देवों के बीच सैंकड़ों वर्ष युद्ध
चलता रहा, युद्ध का कोई परिणाम न निकलते देख देवों ने देवी से प्रार्थना की कि वह
युद्ध में उनकी सहायता करे। देवी को देखते ही असुर भयभीत हो उठे और दया की भीख
मांगने लगे। देवी ने उन्हें कहा कि युद्ध का रास्ता त्याग कर पाताल लोक में शांति
से रहें और समय के चक्र को घूमते हुए अपनी ओर आने की प्रतीक्षा करें। इसके उपरांत
ब्रह्माण्ड में शांति फैल गई। देव और असुर अपने अपने स्थान पर शांतिपूर्वक रहने
लगे। |