श्री माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड
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असुर हयग्रीव की कथा

कश्यप प्रजापति का अश्व की गर्दन वाला एक पुत्र था जिसका नाम हयग्रीव था। उसने तपस्या करके देवी से यह वरदान प्राप्त कर लिया कि वह किसी हयग्रीव से ही मारा जा सकेगा। इस वरदान से उसमें अपराजय होने की भावना आ गई। इसके परिणामस्वरूप उसने देवों को यह समझ कर सताना आरम्भ कर दिया कि वह उसे मार नहीं सकते। देवों ने विष्णु जी से सहायता मांगी परंतु हयग्रीव से लम्बी लड़ाई का कोई परिणाम न निकला। इस लड़ाई से विष्णु थक कर मंद पड़ गए और स्वयं को दुबारा पुष्ट करने के लिए पलायन कर गए। तब विष्णु पुनर्नवा होने के लिए बैकुण्ठ धाम चले गए। वहां पद्मासन लगा कर ध्यान में लीन हो गए। विष्णु ने कसे हुए धनुष के ऊपरी सिरे पर अपने सिर को सहारा दे रखा था। उसी समय हयग्रीव से दुखी हुए देव विष्णु से सहायता मांगने हेतु पुनः आ गए। परंतु विष्णु को गहरे ध्यान से जगाने में देव असफल रहे। तब देवों ने विष्णु को जगाने के लिए दीमक से सहयता मांगी। दीमक ने उस धनुष की प्रत्यंचा को खा कर कमजोर कर दिया जिस के सिरे पर विष्णु सिर रख कर ध्यान में लीन थे। धनुष की प्रत्यंचा के टूटने से ऐसी गंूजदार ध्वनि उत्पन हुई कि जिस से सारा ब्रह्माण्ड कांपने लगा और प्रत्यंचा के खिल जाने से विष्णु के सिर को जोर का झटका लगा जिससे उनका सिर शरीर से अलग हो गया।

सिर कटे विष्णु को देखकर देवता भय से मरणतुल्य होकर घबराहट में देवी से सहायता के लिए प्रार्थना करने लगे। उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर देवी ने देवों से कहा कि भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इस ब्रह्माण्ड में कोई भी घटना बिना किसी उद्धेश्य के नहीं होती। तब देवी ने उन्हें असुर हयग्रीव को दिए अपने वर के बारे में बताया और उन्हें विष्णु के शरीर पर अश्व का सिर लगा देने की प्रेरणा दी ताकि बदल चुके भेष में विष्णु असुर हयग्रीव को मार सके।


इस तरह अश्व का सिर धारण करके विष्णु जी असुर हयग्रीव से युद्ध करने के लिए मैदान में उतर पड़े और अंततः देवी की कृपा से अश्व के सिर वाले विष्णु ने हयग्रीव को मार गिराया।

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